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स्वास्थ्य-चिकित्सा >> आयुर्वेद सिद्धान्त रहस्य

आयुर्वेद सिद्धान्त रहस्य

आचार्य बालकृष्ण

प्रकाशक : दिव्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :262
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6288
आईएसबीएन :81-89235-47-8

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यह पुस्तक, इस प्राचीनतम् महाशास्त्र आयुर्वेद के सिद्धान्तों के रहस्यों के विषय में उपयोगी और प्रमाणिक जानकारी देने के लिए प्रस्तुत की जा रही है।

Ayurved Siddhanat Rahasya-A Hindi Book by Acharya Bakrishna - आयुर्वेद सिद्धान्त रहस्य - आचार्य बालकृष्ण

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

विश्व की सभी सांस्कृतियों में, भारत की संस्कृति न सिर्फ प्राचीन ही है बल्कि सर्वश्रेष्ठ और बेजोड़ भी है। हमारी सभ्यता संस्कृति और सभ्यता के मूल स्रोत और आधार हैं वेद, जो कि मानव जाति के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। संसार का सबसे प्राचीन चिकित्सा एवं स्वास्थ्य संबंधी शास्त्र आयुर्वेद है जो कि अथर्ववेद का उपवेद माना जाता है और यह पुस्तक, इस प्राचीनतम् महाशास्त्र आयुर्वेद के सिद्धान्तों के रहस्यों के विषय में उपयोगी और प्रमाणिक जानकारी देने के लिए प्रस्तुत की जा रही है।
प्राचीन ऋषि मनीषियों ने आयुर्वेद को ‘शाश्वत’ कहा है और अपने इस कथन के समर्थन में तीन अकाट्य युक्तियां दी हैं यथा-

‘सोयेऽमायुर्वेद: शाश्वतो निर्दिश्यते,
अनादित्वात्,
स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वात्, भावस्वभाव
नित्यत्वाच्च’

चरक संहिता सूत्र, 30/26)

अर्थात् यह आयुर्वेद अनादि होने से, अपने लक्षण के स्वभावत: सिद्ध होने से और भावों के स्वभाव के नित्य होने से शाश्वत यानी अनादि अनन्त है ऐसे शाश्वत शास्त्र आयुर्वेद को ब्रह्मा प्रजापति ने अध्ययन किया, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, इनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ऋषि ने अध्ययन करके अन्य ऋषियों को आयुर्वेद का ज्ञान दिया जिनमें पुनर्वसु आत्रेय, अग्निवेश, जतूपूर्ण, पराशर, हारीत, क्षार पाणि, सुश्रुत, धन्वन्तरि, वाग्भट आदि के नाम का उल्लेखनीय हैं।
भारतीय संस्कृति में मनुष्य जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य चार पुरुषार्थ-धर्म, कर्म, काम और मोक्ष का पालन कर आत्मोन्नति करना जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो कर प्रभु से मिलना, और इन चारों पुरुषार्थ की सिद्धि व उपलब्धि का वास्तविक साधन और आधार है पूर्ण रूप से स्वस्थ शरीर क्योंकि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ के अनुसार धर्म का पालन करने का साधन स्वस्थ शरीर ही है। शरीर स्वस्थ और निरोग हो तो ही व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है, किसी सुख-साधन का उपभोग कर सकता है, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा कर सकती है, आत्मकल्याण के लिए साधना और ईश्वर की आराधना कर सकती है। इसीलिए जो सात सुख बतलाये/कहे गये हैं उनमें पहला सुख निरोगी काया यानी स्वस्थ शरीर होना कहा गया है। आयुर्वेद भी यही कहता है यथा-

‘धर्मार्थ काममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्’

(चरक संहिता सूत्र, 1/15)

अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल आधार स्वास्थ्य ही है।
आयुर्वेद शास्त्र की महत्ता और उपयोगिता के विषय में प्रश्न प्रस्तुत किया गया है-‘किमर्थमायुर्वेद:’ अर्थात् आयुर्वेद का प्रयोजन यानी उद्देश्य क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर दिया गया-

‘प्रयोजनं चास्य स्वस्थ्यस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।’

(चरक संहिता सूत्र. 30/26)

यानी आयुर्वेद शास्त्र का प्रयोजन अर्थात् उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आयुर्वेद का यह उद्देश्य धन कमाने या यश प्राप्त कर वाह-वाही लूटने के लिए नहीं बनाया गया है बल्कि प्राणी मात्र के प्रति दया व करुणा की भावना रख कर बनाया गया यथा-

‘धर्मार्थ चार्थ कामार्थमायुर्वेदो महर्षिभि:।
प्रकाशितो धर्म परैरिच्छद्भि: स्थानमक्षरम्।।’

(चरक संहिता चिकित्सा 1-4/57)

अर्थात् धर्म कार्य में तत्पर और अक्षर पद प्राप्त करने की कामना वाले ऋषियों ने आयुर्वेद का प्रकाश धर्म पालन हेतु किया, धन कमाने या किसी विशिष्ट कामना की प्राप्ति के लिए नहीं। चिकित्सक की परिभाषा करते हुए इसलिए आयुर्वेद ने कहा है-

‘नाथार्थ नापि कामार्थमथ भूत दयां प्रति।
वर्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमतिवर्तते।

(चरक संहिता चिकित्सा 1-4/58)

अर्थात् जो वैद्य धन या किसी विशिष्ट कामना को ध्यान में न रखकर, केवल प्राणिमात्र (रोगी) के प्रति दया-भाव रख कर ही कार्य करता है, वही वैद्य सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक होता है।
ऐसे श्रेष्ठ और उच्च आदर्श वाले नियम-सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र आयुर्वेद, विश्व का एकमात्र चिकित्सा शास्त्र है जो दवा इलाज से भी ज्यादा महत्त्व, पथ्य-अपथ्य के पालन करने को देता है और उस कारण को दूर करना चिकित्सा का पहला कदम बताता है जो रोग पैदा कर रहा हो यथा-
‘संक्षेपत: क्रिया योगो परिवर्जनम्’
अर्थात् रोग उत्पन्न करने वाले कारण का पहले त्याग करो। अपने प्रयोजन (उद्देश्य) को सिद्ध करने के लिए आयुर्वेद, स्वास्थ्य की रक्षा करने के उपाय ही बताता है और जिन कारणों से रोग उत्पन्न होता है, उन कारणों की भी जानकारी देता है।
स्वास्थ्य की रक्षा करने के उपाय बताते हुए आयुर्वेद कहता है-

‘त्रय उपस्तम्भा इति-आहार: स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति’

(चरक संहिता सूत्र. 11/35)

अर्थात् शरीर और स्वास्थ्य को स्थिर, सुदृढ़ और उत्तम बनाये रखने के लिए आहार, स्वप्न (निद्रा) और ब्रह्मचर्य-ये तीन उपस्तम्भ हैं। ‘उप’ यानी सहायक और ‘स्तम्भ’ यानी खम्भा। इन तीनों उप स्तम्भों का यथा विधि सेवन करने से ही शरीर और स्वास्थ्य की रक्षा होती है।
इसी के साथ शरीर को बीमार करने वाले कारणों की भी चर्चा की गई है यथा-

‘धी धृति स्मृति विभ्रष्ट: कर्मयत् कुरुत्
ऽशुभम्।
प्रज्ञापराधं तं विद्यातं सर्वदोष प्रकोपणम्।।’

(चरक संहिता शरीर. 1/102)

अर्थात् धी (बुद्धि), धृति (धैर्य) और स्मृति (स्मरण शक्ति) के भ्रष्ट हो जाने पर मनुष्य जब अशुभ कर्म करता है तब सभी शारीरिक और मानसिक दोष प्रकुपित हो जाते हैं। इन अशुभ कर्मों को प्रज्ञापराध कहा जाता है। जो प्रज्ञापराध करेगा उसके शरीर और स्वास्थ्य की हानि होगी और वह रोगग्रस्त हो ही जाएगा।
आयुर्वेद ने अपनी व्याख्या करते हुए कहा है

‘तदायुर्वेद यतीत्यायुर्वेद:’

(चरक संहिता सूत्र. 30/23)

अर्थात् जो आयु का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहा जाता है।


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